रविवार, 20 मई 2012

मनुष्य और सर्प

चल रहा महाभारत का रण, जल रहा धरित्री का सुहाग
फट कुरुक्षेत्र में खेल रही, नर के भीतर की कुटिल आग
बजिओं गजों के लोथों पर, गिर रहे मनुज के छिन्न अंग
बह रहा चतुशपद और द्विपद का रुधिर मिश्र हो एक संग

गतवर गर्य रुधर भूधर से लिए रक्त रंजित शरीर
थे झूज रहे कोंते कर्ण षण षण करते गर्जन गंभीर
दोनों रणकुशल धनुर्धर नर, दोनों संबल दोनों समर्थ
दोनों पर दोनों की अमोघ थी, वृशिख वृष्टि हो रही व्यर्थ

इतने में शर के लिए कर्ण ने देखा जो अपना निषंग
उसमे से फुफकार उठा कोई प्रचंड विषधर भुजंग 
कहा कर्ण "मै अश्वसेन विश्रित भुजंगो का स्वामी हूँ,
जन्म से पार्थ का परम शत्रु, तेरा प्रतिबल हित्गामी हूँ
कर कृपा चढ़ श्रव्य पर, मुझे पर्थ तक जाने दे
इस महाशत्रु को अभी यही स्पंदन में मुझे सुलाने दे

कर वामन गरल जीवन भर का, संचित प्रतिशोध उतारूंगा
तू मुझे सहारा दे बढकर, मैं अभी पर्थ को मारूंगा"
राधे जरा हंसकर बोला "रे कुटिल बात क्या कहता है
जय का समस्त साधन नर की अपनी बाहों में रहता है"

उसपे भी सर्पो से मिलकर, मै मनुज मनुज से युद्ध करूं
जीवन भर जो निष्ठा पाली उसके आचरण विरुद्ध करूं
संसार कहेगा जीवन का सब सुकृत कारन ने क्षार किया
प्रतिभात के वध के लिए नीच ने सर्पो का सहाय लिया

रे अश्वसेन तेरे अनेक वंशज हैं छुपे नरों में भी
बसते वनों में ही नहीं बसते कुल, ग्राम, घरों मे भी
ये नर भुजंग मानवता का पथ कठिन बहुत कर देते हैं
प्रतिभट के वध के लिए नीच सहाय सर्प का लेते है

अर्जुन है मेरा परम शत्रु पर वेह सर्प नहीं नर ही तो है
संगर्ष सनातन नहीं शत्रुता इस जीवन भर ही तो है
जा भाग मनुज का सहज शत्रु मित्रता न मेरी पा सकता
में किसी हेतु भी यह कलंक अपने सर नहीं लगा सकता