गुरुवार, 31 मई 2012

मोह मछलियों का अब छोड़

जाल-समेटा करने में भी 
समय लगा करता है, माँझी, 
मोह मछलियों का अब छोड़। 

सिमट गई किरणें सूरज की, 
सिमटीं पंखुड़ियाँ पंकज की, 
दिवस चला छिति से मुँह मोड़। 

तिमिर उतरता है अम्बर से, 
एक पुकार उठी है घर से, 
खींच रहा कोई बे-डोर। 

जो दुनिया जगती, वह सोती; 
उस दिन की सन्ध्या भी होती, 
जिस दिन का होता है भोर। 

नींद अचानक भी आती है, 
सुध-बुध सब हर ले जाती है, 
गठरी में लगता है चोर। 

अभी क्षितिज पर कुछ-कुछ लाली, 
जब तक रात न घिरती काली, 
उठ अपना सामान बटोर। 

जाल-समेटा करने में भी, 
वक़्त लगा करता है, माँझी, 
मोह मछलियों का अब छोड़। 

मेरे भी कुछ कागद-पत्रे, 
इधर-उधर हैं फैले-बिखरे, 
गीतों की कुछ टूटी कड़ियाँ, 
कविताओं की आधी सतरें, 
मैं भी रख दूँ सबको जोड़।

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